दम तोड़ने की कगार पर Kanshi Ram की विरासत

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Kanshi Ram

नई दिल्ली: Kanshi Ram : मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कांशी राम इसलिए भी याद किए जा रहे हैं

क्योंकि जिस समृद्ध राजनीतिक विरासत को वो छोड़कर गए, वो आज दम तोड़ने की कगार पर जा पहुंची है.

आज दिग्गज दलित नेता और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशी राम (Kanshi Ram) की जयंती है.

हालिया उत्तर प्रदेश चुनावों में उनकी स्थापित पार्टी बसपा को महज एक सीट से संतोष करना पड़ा है.

15 साल पहले बसपा ने 206 सीटें जीती थीं और मायावती अपने दम पर देश के सबसे बड़े राज्य की मुखिया बनी थीं.

15 मार्च, 1934 को पंजाब के एक दलित परिवार में जन्मे कांशी राम ने 1984 में बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती पर यानी 14 अप्रैल,

1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी,

और बाबा साहेब की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया था.

Kanshi Ram की राजनीति के केंद्र में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग था.

कांशी राम राजनीति में आने से पहले सरकारी नौकरी में थे.

उन्होंने सबसे पहले 1978 में सरकारी संगठनों में दलित श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए एक संगठन बनाया था.

बाद में उन्होंने 1981 में एक राजनीतिक मंच – दलित शोषित संघर्ष समिति- का गठन किया.

उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी.

तब उन्होंने ऐलान किया था कि वह बहुजन समाज पार्टी के अलावा किसी अन्य संगठन के लिए काम नहीं करेंगे.

अविवाहित कांशी राम का एक सामाजिक कार्यकर्ता से राजनेता के तौर पर रूपांतरण हो चुका था.

Kanshi Ram ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, दिल्ली और हरियाणा में अपनी पार्टी को मजबूत करने के लिए खूब संघर्ष किया. 1987 में उन्होंने पहला चुनाव वीपी सिंह के खिलाफ लड़ा.

इलाहाबाद लोकसभा सीट पर तब उप चुनाव हो रहे थे लेकिन कांशी राम हार गए.

इसके अगले साल 1989 का लोकसभा चुनाव कांशीराम ने पूर्वी दिल्ली सीट से लड़ा लेकिन फिर वो हार गए.

दो चुनावी हार के बाद कांशी राम 1991 का लोकसभा चुनाव यादवों के गढ़ कहे जाने वाले इटावा से जीतने में कामयाब रहे.

यह वही चुनाव है, जिसमें मुलायम सिंह यादव ने कांशी राम की मदद की थी

और उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार के खिलाफ 20,000 से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की थी.

1992 में जब देशभर में राम मंदिर का आंदोलन चरम पर था,

तब इन दोनों सियासी धुरंधरों ने गठजोड़ कर बीजेपी के विजय रथ को रोक दिया था.

बाबरी विध्वंस के बाद 1993 में जब उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव हुए तो सियासी फिजाओं में इन दोनों दिग्गजों के मिलन के नारे गूंजने लगे थे.

‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्री राम’ और ‘बाकी राम झूठे राम, असली राम कांशीराम’.

इन नारों ने तब उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश की राजनीति के समीकरण उलट पलट दिए थे.

यूपी चुनावों में तब मुलायम सिंह की नई नवेली पार्टी समाजावदी पार्टी को 109 और बसपा को 67 सीटों पर जीत मिली थी.

बीजेपी को तब 33.3 फीसदी वोट मिले थे और 177 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

इसके बाद मुलायम सिंह पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने थे.

1995 में मायावती ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. इसके बाद उनकी सरकार गिर गई.

एक इंटरव्यू में कांशी राम ने बताया था कि उनके कहने पर ही मुलायम सिंह यादव ने अपनी नई समाजवादी पार्टी बनाई थी.

कांशी राम (Kanshi Ram) कहा करते थे- ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’

साल 2001 में कांशी राम ने बसपा मायावती को सौंप दी, तब नारा भी बदल गया.

मायावती के नेतृत्व में नारा बदलकर- ‘जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ हो गया.

यहां यह बात गौर करने वाली है कि 13वीं लोकसभा में बसपा के 14 सांसद थे जो 14वीं में 17 और 15वीं लोकसभा में 21 हो गए लेकिन मौजूदा 16वीं लोकसभा में बसपा का एक भी सांसद नहीं है.

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